देवदास : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय (बांग्ला उपन्यास)
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पानी मे डूबने से मनुष्य जिस प्रकार जमीन को पकड़ लेता है और फिर किसी भांति छोड़ना नही चाहता, ठीक उसी भांति पार्वती ने अज्ञानवत देवदास के दोनो पांवो को पकड़ रखा था। उसके मुख की ओर देखकर पार्वती ने कहा-‘मै कुछ नही जानना चाहती हूं, देव दादा!’
‘पत्तो, माता-पिता की अवज्ञा करे?’
‘दोष क्या है?’
‘तब तुम कहां रहोगी।’
पार्वती ने रोते-रोते कहा-‘तुम्हारे चरणो में...।’
फिर दोनो व्यक्ति स्तब्ध बैठे रहे। घड़ी मे चार बज गये। ग्रीष्मकाल की रात थी; थोड़ी ही देर मे भोर होता हुआ जानकर देवदास ने पार्वती का हाथ पकड़ कर कहा-‘चलो, तुम्हे घर पहुंचा आवे।’
‘मेरे साथ चलोगे?’
‘हानि क्या है? यदि बदनामी होगी तो कुछ उपाय भी निकल आयेगा।’ ‘तब चलो।’
दोनो धीरे-धीरे बाहर चले गये।
दूसरे दिन पिता के साथ देवदास की थोड़ी देर के लिए कुछ बातचीत हुई। पिता ने उससे कहा-‘तुम सदा से मुझे जलाते आ रहे हो जितने दिन इस संसार मे जीवित रहूंगा उतने दिन यो ही जलाते रहोगे।
तुम्हारे मुंह से ऐसी बात का निकलना कोई आश्चर्य नही है।’
देवदास चुपचाप मुंह नीचे किए बैठे रहे।
पिता ने कहा-‘मुझे इससे कोई संबंध नही है, जो इच्छा हो, तुम अपनी मां से मिलकर करो।’
देवदास की मां ने इस बात को सुनकर कहा-‘अरे, क्या यह भी नौबत मुझे देखनी बदी थी?’
उसी दिन देवदास माल-असबाब बांधकर कलकत्ता चले गये। पार्वती उदासीन भाव से कुछ सूखी हंसी हंसकर चुप रही। पिछली रात की बात को उसने किसी से नही जताया। दिन चढ़ने पर मनोरमा आकर बैठी और कहा-‘पत्तो, सुना है कि देवदास चले गये?’
‘हां।’